बेमौसम हस देती हूं मैं
बेमौसम, यूं केहता था तू
कि बेमौसम को पसंद तू करता था
कि मैं तब बहार सी दिखती थी
जब आसमान भी धुसर सजता था
कभी चादर की सिलवटों में
मुझे ग्रीष्मा गोद ले लेती थी
तो कभी तेरी करवटों में
चांदनी की ठंडक मैं ओढ़ लेती थी
बेमौसम तू रुख़ मोड़ता
बेमौसम मैं छांव ले आती
कि बेमौसम चलते जब नंगे क़दमों से
धूप के सौंधे सफ़र को तय करने,
जब डालियों से छनकती बेल तोड़कर
सपनों कि मिट्टी में एक कमरा बुनता
जिसमें आह भरने को तो हर चौक थी
पर कान्धे ने तेरे आह कि ज़रूरत न दी
बेमौसम ही बढ़ते रहें
बेमौसम फूल खिलते रहें
कि बेमौसम, भंवरों की गूंज चुन ली थी हमने
भूल गए कि बहारों के बिना फूल मुर्झाते हैं
और भंवरे मंडराते खो जाते हैं
बेमौसम ही बरसात हुई जब
बेमौसम बूंदें चख ली शायद
कि बेमौसम रुख़ मुड़ता गया
न जाना मैने कब वक्त बढ़ता गया
और दूर हो चली जब तकाज़े की समझ
तो बादलोने गरजने में हिजक न सीखी
और धुले रास्तों को अन्जान राह ही दिखी
बेमौसम बदलते रहते हैं
बेमौसम खूबसूरती को अपनाते हैं
बढ़ते हुए कदम जब
रास्तों को भुला ना पाते हैं
तो मुड़ते हैं बार बार
बेवक्त, बेपरवाह, बेपनाह होना जानते हैं
पर राहें बेमौसम बदलती चलती हैं
राहगुज़र ठोकरें न याद कर पाता है
और चुभती मुस्कुराहटों में रहता है
बेमौसम ही अब हस्ती हूं मैं
बेमौसम ही बहारें रंगती हूं, शायद
की बेमौसम तुझे पसंद था तू कहता
और उसी एक वादे को सच्चा किया…
बेमौसम ग्रीष्मा देती हूं कभी
आंखों से सिलवटों को भिगोती हूं जब भी
करवटों में तेरी मुस्कुराती हूं
बेमौसम को मैं भी पसंद करती हूं
~आपकी Ojhal
The featured image has been clicked by our photographer Srishti Garg.
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